Panchayat24.com : (डॉ देवेन्द्र कुमार शर्मा) : साल 2015 की तारीख थी 28 सितम्बर और स्थान था दादरी का बिसाहड़ा गांव। इस दिन बिसाहड़ा गांव में एक अनहोनी हुुई जिसने इस गांव के साथ एक ऐसा काला अध्याय जोड़ दिया जिसे गांव चाह कर भी याद करना नहीं चाहेगा। इतना ही नहीं इस घटना ने देश की राजनीति को भी वैचारिक आधार पर बांट दिया।

दरअसल, इस दिन शाम के समय गांव में गौहत्या और गौमांस पकाने एक अफवाह उड़ी। कुछ ही देर में यह खबर देखते ही देखते पूरे गांव में फैल गई। भीड़ ने गौहत्या और गौमांस पकाने के आरोप में गांव के ही अकलाख के घर पर धावा बोल दिया। घर पर मौजूद अकलाख, उसकी पत्नी, बेटी और मां के साथ जमकर मारपीट की। भीड़ ने अकलाख और उसके बेटे को पीट पीटकर गंभीर रूप से घायल कर दिया। उपचार के दौरान अकलाख की मौत हो गई।
भीड़ के इस हिंसक रूप के लिए गांव के मंदिर से लोगों को एक स्थान विशेष पर एकत्रित होने के लिए की गई अपील को मुख्य कारण माना गया। देश भर में मन्दिर के लाउडस्पीकर से अफवाह फैलाने के लिए की गई अपील की घोर निंदा की गई। बहुसंख्यक वर्ग ने भी इस कृत्य की कडे शब्दों में आलोचना की।
मीडिया में इस पर बड़े बड़े लेख तक लिखे गए। मीडिया के एक वर्ग और सेक्यूलर गैंग ने मन्दिर को निशाना बनाकर बार बार देश के बहुसंख्यक वर्ग पर निशाना साधा। इतना ही नहीं इस घटना के बाद देश में ऐसा माहौल बना दिया मानो मन्दिर हिंसा परोसने का केन्द्र हो। पहली बार असहिष्णुता और मोब लिंचिंग जैसे शब्द सुनने को मिले। इस एक घटना के आधार पर अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि को घूमिल करने का प्रयास किया गया। वह लोग जिन्हें देश ने नाम, शौहरत और रूपया पैसा दिया, अचानक कहने लगे कि देश में असुरक्षा का माहौल है। उन्हें देश में डर लगता है। पुरस्कार तक सरकार को वापस लौटाने की मुहिम शुरू हो गई। जब भी बिसाहड़ा में हुए अकलाख हत्याकांड़ की चर्चा होती है तो लोग मन्दिर के लाउडस्पीकर से चंंद युवकों द्वारा फैलाई गई अफवाह का जिक्र जरूर होता है।

सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना लोगों का संवैधानिक अधिकार है। इससे किसी को एतराज नहीं होना चाहिए, लेकिन विरोध प्रदर्शन करने वालों को भी समझना चाहिए कि संविधान उन्हें भी एक मर्यादा में रहकर ही विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार देता है। विरोध प्रदर्शन तभी तक संवैधानिक हो सकता है, जब उससे किसी अन्य देशवासी को परेशानी न हो। देश भर में जम्मु और कश्मीर से लेकर केरल तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक होने वाले विरोध प्रदर्शन में एक प्रवृति प्रमुख रूप से देखी जा रही है। लोग सरकार के प्रति अपनी नाराजगी और असहमति को लेकर बिना चर्चा किए, बिना संवाद स्थापित कर समस्या के समाधान का प्रयास किए ही सड़कों पर उतर आते हैं।
अजीब विड़ंबना है कि लोगों का सरकार और व्यवस्था के प्रति आक्रोश शुक्रवार के दिन मस्जिद में ही फूटता है ? सरकार का कोई फैसला हो, कोर्ट द्वारा दिया गया कोई अहम निर्णय हो या फिर संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून हो, विरोध शुक्रवार के दिन मस्जिद से ही शुरू होता है। शुक्रवार को होने वाली जुम्मे की नमाज को लेकर शासन और प्रशासन को विशेष रणनीति बनानी पड़ती है। मस्जिदों के बाहर भारी सुरक्षा बल तैनात किए जाते हैं। इसके बावजूद मस्जिद से निकलने वाली भीड़ रौद्र रूप धारण कर अपने ही देश के नागरिकों, अपने ही देश की सम्पत्ति और अपने ही देश के सुरक्षा बलों को निशाना बनाती है।

इस्लाम धर्म में मस्जिद का पवित्र स्थान है। हर मुसलमान कम से कम सप्ताह में एक दिन मस्जिद में जाकर अपने खुदा के सामने उपस्थित होकर अपनी आत्मा को अपने खुदा से जोड़ने का प्रयास करता है। मस्जिद में जाकर अपने आचरण का मूल्यांकन करता है कि उसके द्वारा कोई ऐसा काम तो नहीं हुआ जो उसके खुदा द्वारा बताए गए रास्ते पर उसे चलने से भटकाता है। यदि इंसान को लगता है कि उसके द्वारा कोई ऐसा आचरण किया गया है जो उसके रसूल द्वारा बताए रास्ते से उसे भटकाता है तो नमाज में इंसान अपने ऐसे काम से तौबा करता है। अपने मन में प्रण करता है कि वह आगे से ऐसा नहीं करेगा और रसूल के बताए रास्ते पर चलकर अपना और मानव जाति के भले में काम करेगा।
यदि ऐसा है तो फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि जो इंसान खुदा की इबादत करने मस्जिद में जाता है वह मस्जिद से हैवान बनकर निकलता है। उसके विरोध का तरीका अचानक हिंसक हो जाता है। हैवानियत से सराबोर इंसान हाथों में पत्थर और पैट्रोल बम लेकर दौड़ पड़ता है। इस हालत में उसे ना तो दूसरे की जान की फिक्र होती है और न ही अपनी जान की परवाह। यहां तक की पुलिस पर भी हमले किए जाते हैं। सड़कों पर भय और आतंक का नंगा नाच किया जाता है। इसमें ना जाने कितने ही लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। कितने ही लोगों के परिवार का गुजर बसर करने वाली दुकान और अन्य सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। इससे जहां व्यक्ति विशेष को क्षति होती है, वहीं राष्ट्र को भी भारी नुकसान होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर मस्जिद में ऐसा क्या होता है जो भोला भाला इंसान कुछ ही मिनटों में हैवान बन जाता है ? कहीं ऐसा तो नहीं धर्म की आड़ में कुछ लोग निजी हितों को साधने के लिए मस्जिदों का दुरूपयोग कर रहे हैं ?

देश में शायद बिसाहड़ा एकमात्र स्थान है जहां बहुसंख्यक वर्ग के धार्मिक स्थल का हिंसा फैलाने के लिए कुछ युवाओं द्वारा दुरूपयोग किया गया। मीडिया में धार्मिक स्थल की हिंसा में भूमिका की खूब चर्चा हुई। बहुसंख्यक वर्ग ने भी इसका विरोध किया। होना भी चाहिए। लेकिन देश में इस तरह की घटनाओं पर दोहरा नजरिया अपनाया गया। बिसाहड़ा की घटना के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश और देश के बहुसंख्यक वर्ग को बदनाम करने की चेष्टा की गई। अल्पसंख्यक वर्ग और तथाकथित सैक्यूलर गिरोह के लोगों को देश में डर लगने लगा। देश का माहौल अचानक मोब लिंचिंग और असहिष्णुता से भर गया। लेकिन सवाल उस समय उठता है जब यह लोग बिसाहड़ा के मन्दिर को बिसाहड़ा कांड के लिए जिम्मेवार ठहराने से पीछे नहीं हटते, लेकिन आजादी से पहले से ही मस्जिदों में जुम्मे की नमाज के बाद होने वाली हिंसा पर आंख मूंद लेते हैं। बिसाहड़ा की एक घटना बहुसंख्यक वर्ग के प्रति अल्पसंख्यक वर्ग के मन में असुरक्षा और भय का भाव पैदा करती है तो मस्जिदों से निकलने वाली सैकड़ो हजारों की भीड़ द्वारा किए जाने वाला हिंसा के नंगे नाच को देखकर बहुसंख्यक वर्ग के मन में क्या भाव पैदा होता होगा ? ऐसे में आवश्यकता है कि समस्या प्रति एकतरफा नजरिए छोड़कर ईमानदारी से विचार किया जाए कि समस्या कहां है ? देश में असहिष्णुता कहां है ?