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विवाह संस्था और बदलते दौर में पति-पत्‍नी के रिश्‍ते की दिशा : हम–तुम से अकेले हम, अकेले तुम तक की ओर बढ़ चली है !

The institution of marriage and the direction of the relationship between husband and wife in the changing times: From 'we and you' to 'we alone, you alone'!

डाॅ देवेन्‍द्र कुमार शर्मा 

Panchayat 24 (ग्रेटर नोएडा) : विवाह समाज की विशेष किस्‍म की संस्‍था है। इसका आधार पति-पत्‍नी का रिश्‍ता है जिसका स्‍थायित्‍व दोनों की आपसी समझ पर निर्भर करता है। ग्रेटर नोएडा के झकझोर देने वाले निक्‍की हत्‍याकांड़ का संबंध मूलरूप से पति-पत्‍नी के इसी रिश्‍ते से ही है। कानून और सामाजिक मूल्‍यों पर प्रश्चनचिन्‍ह खड़ा करने वाली इस दर्दनाक घटना ने विवाह जैसेी पवित्र एवं शाश्वत संस्‍था के भविष्‍य और उसके स्‍वरूप पर भी गंभीर विमर्श छेड़ दिया है।

भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों का ही नहीं, बल्कि दो परिवारों और कभी-कभी दो संस्कृतियों का मिलन माना गया है। इसमें पति और पत्नी “हम–तुम” के सूत्र में बंधकर जीवन की कठिनाइयों और खुशियों को साझा करने का वचन देते हैं। वास्‍तव में यह संस्था आपसी सम्मान, विश्वास, सहयोग और संवेदनशीलता पर टिकी होती है।

आज के दौर में शिक्षा, स्वतंत्रता और रोजगार के अवसरों ने पति–पत्नी, दोनों को अपनी-अपनी व्यक्तिगत पहचान के प्रति सजग किया है। यह सकारात्मक पहलू है, क्योंकि आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान रिश्तों को और मज़बूत बना सकते हैं। लेकिन भौतिकतावादी जीवनशैली का प्रभाव पति-पत्‍नी के रिश्‍ते को भी प्रभावित कर रहा है। यह प्रभाव महानगरीय संस्‍कृति में अपनी जगह तेजी से बना रहा है।

दिल्‍ली एनसीआर के जिलों, गौतम बुद्ध नगर, गाजियाबाद, फरीदाबाद एवं गुरूग्राम के साथ आसपास के ग्रामीण क्षेत्र इसके प्रभाव की चमकधमक में खो रहे हैं। परिणामस्‍वरूप पति-पत्‍नी के रिश्‍ते में जैसे-जैसे ‘हम’ की जगह ‘मैं’ स्‍थान बनाने लगा है, वैसे वैसे रिश्तों में तनाव भी बढ़ने लगा है। पहले जहाँ कठिनाइयों में असहमतियों और मतभेदों के बावजूद पति–पत्नी साथ मिलकर समाधान ढूँढते थे, वहीं अब थोड़ी असहमति या मतभेद रिश्ते को हम–तुम से अकेले हम, अकेले तुम की दिशा में धकेल देते हैं। अर्थात विवाह रूपी संस्‍था का आधार दरकने लगता है।

निक्की हत्याकांड और इस प्रकरण की नई किरदार मीनाक्षी जैसे प्रकरण रिश्‍तों के ऐसे ही असंतुलन की चरम परिणति हैं। जब रिश्तों में संवाद और सहनशीलता की कमी होती है, तब छोटे-छोटे मतभेद भी हिंसक रूप लेने लगते हैं। विवाह रूपी संस्‍था में पति और पत्नी यदि एक-दूसरे की स्वतंत्रता को प्रतिद्वंद्वी की तरह देखने लगें, तो इस संस्था के टूटने का खतरा कई गुना तेजी से बढ़ने लगता है। ऐसे में सवाल उठता है क्‍या हम बिना विवाहविहीन समाज की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ?

यदि ऐसा है तो सवाल उठता है क्‍या हम सामाजिक विकास की चरम परिणति से वापस उसी जंगली और अराजक समाज की ओर बढ़ रहे हैं, जहां से मानव ने विकास की प्रक्रिया को शुरू किया था ? सबसे बड़ा सवाल है क्‍या हम ऐसी कल्‍पना भी कर सकते हैं ? संभवत: नहीं। ऐसे में उस बिन्‍दु पर विचार किया जाना अनिवार्य है जहां से समस्‍या का समाधान तलाशा जाए।

जैसा मैं पहले कह चुका हूं कि विवाह संस्था समय के साथ बदल रही है। ऐसे में पति-पत्‍नी अब केवल एक-दूसरे के पूरक नहीं, बल्कि अपने-अपने सपनों के साथ बराबरी के सहभागी भी हैं। अत: एक दूसरे को बेहतर ढंंग से समझने की जरूरत है। ज़रूरत इस बात की है कि यह परिवर्तन पति-पत्‍नी के रिश्‍ते को सकारात्‍मक रूप से हम–तुम से ‘हम’ की ओर ले जाए, न कि अकेले हम, अकेले तुम वाली नकारात्‍मकता की ओर। अगर संवाद, संवेदना और समझदारी को रिश्तों का आधार बनाया जाए, तो विवाह संस्था न केवल बची रहेगी बल्कि और सशक्त भी होगी।

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