फिल्म रिव्यू : एजेंडाधारी सिनेमा की छवि को तोड़ने में कामयाब रही कंगना रनौत की फिल्म इमरजेंसी, राजनीतिक समीकरणों में नहीं बैठी फिट
Film Review: Kangana Ranaut's film Emergency was successful in breaking away from the image of agenda-driven cinema

Panchayat 24 : समाज का दर्पण कहा जाने वाला भारतीय सिनेमा कब एजेंडाधारियों के कब्जे में चला गया, यह पता ही नहीं चला। एजेंडाधारी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते रहे और दर्शक मंत्र मुग्ध होकर इस एजेंडे के जाल में फंसता चला गया। इसका दुष्परिणाम शानदार फिल्मों को झेलना पड़ता है। ऐसी फिल्में एजेंडाधारियों के निशाने पर होती हैं। एजेंडाधारी फिल्में देखने के आदी हो चुके दर्शकों की उपेक्षा का शिकार भी ऐसी फिल्मों को होना पड़ता है। हाल ही में बनी कंगना रानौत के निर्देशन में बनी इमरजेंसी फिल्म इसका जीता जागता उदाहरण है। यह फिल्म कंगना रानौत के निर्देशन में बनी एक शानदार फिल्म है। साल 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान यह फिल्म काफी चर्चा में रही।
फिल्म के टाइटल के कारण कांग्रेसी पार्टी सहित गैर भाजपा राजनीतिक दलों ने इसका जमकर विरोध किया। कुछ कारणों से फिल्म पर रोक लगा दी गई। काफी प्रयासों के बावजूद फिल्म रिलीज हुई और सिनेमाघरों और मल्टीप्लेक्स तक पहुंची। फिल्म समीक्षक अपने तरीकों से फिल्म की समीक्षा कर रहे हैं। राजीनितक विरोध में बदलाव देखने में आया है। कांग्रेसी एवं अन्य गैर भाजपाई दल फिल्म के विरोध को लेकर कुछ नरम रूख अपना रहे हैं। वहीं भाजपा समर्थक फिल्म के विरोध में अपने तर्क गढ़ रहे हैं। हालात यह हैं कि इस फिल्म का कोई भी खुलकर समर्थन नहीं कर रहा है। फिल्म पंजाब में पूरी तरह से बैन है। दिल्ली चुनाव के चलते भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अलग अलग कारणों से फिल्म से दूरी बनाए हुए हैं। इमरजेंसी फिल्म को लेकर बने माहौल के बीच मन में इस फिल्म को देखने की जिज्ञासा हुई। वीरवार को आखिरकार वह दिन आ ही गया जब यह फिल्म मैंने देखी।
इमरजेंसी भारतीय राजनीति के एक चरण के साथ इंदिरागांधी के राजनीतिक जीवन को दर्शाती है। फिल्म परिवारिक एवं राजनतिक संबंधों के बीच सत्ता संघर्ष की कहानी को बयां करती है। एक मासूम लड़की से लेकर एक महिला की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के रूप में इंदिरा गांधी के जीवन के अहम पलों को फिल्म में समेटने का प्रयास किया गया है। प्रतीत होता है कि फिल्म को बनाने से पूर्व इंदिरा गांधी के इमरजेंसी काल को केन्द्र में रखकर दर्शकों के सामने एजेंडा ही परोसने का ही विचार रहा होगा। बाद में इंदिरा के योगदान, उसकी चुनौतियों और इंदिरा को एक विचार के रूप में प्रस्तुत करके फिल्म निर्माताओं ने फिल्म के साथ न्याय करने का प्रयास किया है।
फिल्म में राजनीतिक जीवन के अंतिम दिनों में जवाहर लाल नेहरू की लाचारी, असम को बचाने में इंदिरा की भूमिका, लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनने के देश की सत्ता और कांग्रेस पर काबिज होने को शानदार तरीके से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म में पूर्वी पाकिस्तान की समस्या पर पूर्व अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन से संवाद और फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ डिप्लोमेसी और विरोधी दलों के साथ इंदिरा गांधी की राजनीतिक दक्षता को प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया गया है। हालांकि सोवियत संघ के नेताओं के साथ इंदिरा गांधी के राजनीतिक संबबंधों को फिल्म में भुला दिया गया है। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की विकल्पहीनता, मजबूरी, पुत्र मोह में फंसी एक मां, एक महिला का तानाशाही रवैया और आपातकाल के निर्णय के बाद असुरक्षा के भाव से ग्रसित एक तानाशाह के रूप में इंदिरा गांधी को अच्छी तरह से पेश किया गया है। आपातकाल के दौरान सबसे बुरे निर्णयों के रूप में मीडिया पर पाबंदिया, जबरन परिवार नियोजन और तुर्कमान से गैरकानूनी तरीके से अतिक्रमण हटाने सहित कांग्रेस-भिंडरवाला प्रकरण और ऑपरेशन ब्लूस्टार को भी ईमानदारी से दिखाया गया है। फिर भी लगता है कि इमरजेंसी फिल्म में कुछ छूट गया है। इंदिरा गांधी के राजनीतिक चरित्र को तीन घंटें की फिल्म में नहीं बांधा जा सकता।
फिल्म में इंदिरा गांधी के रूप में कंगना रनौत ने शानदार काम किया है। अपनी अभिनय कला के दम पर कंगना रनौत ने इंदिरा गांधी के जीवन चरित्र को जीवंत कर दिया है। कंगना के किरदार के रूप में इमरजेंसी भारतीय सिनेमा की शानदार डॉक्यूमेंटरी के रूप में याद की जाएगी। दर्शकों को एजेंडे के मकड जाल से बाहर आकर इमरजेंसी जैसी फिल्मों को देखना चाहिए। दमदार अभियन के लिए कंगना तारीफ की हकदार है। संजय गांधी की भूमिका में विशाक नायर ने प्रसंशनीय काम किया है। सतीश कौशिक जगजीवन राम की भूमिका में फिट बैठे हैं। जय प्रकाश नारायण की भूमिका के साथ अनुपम खैर ने भी न्याय किया है। अटल बिहारी वाजपेयी के रूप में सुरेश तलपड़े कुछ बेहतर कर सकते थे। फिल्ड मार्शल सेम के किरदार के लिए मिलंद सोमन एकदम सही चयन रहा। उन्होंने सेम के किरदार को शानदार तरीके से प्रस्तुत किया है। पुपुल जयकर के रूप में महिमा चौधरी का काम भी अच्छा ही रहा है।