स्पेशल स्टोरी

नेपाल की घटना का डर दिखाकर भारत में अलोकतांत्रितक तरीके से सत्‍ता बदलाव का विचार करने वाले लोग भारत को जानते नहीं हैं

Those who are thinking of changing the government in India by showing fear of Nepal incident do not know India

डॉ देवेन्‍द्र कुमार शर्मा

Panchayat 24 : भारत के पड़ोसी देशों श्रीलंका, बंग्‍लादेश और फिर नेपाल में जिस तरह से सत्‍ता परिवर्तन हुए है उसके बाद कुछ नासमझ अगला नंबर भारत का बता रहे हैं। इनमें बड़ी संख्‍या में ऐसे लोग है जिन्‍हें शायद स्‍वयं भी नहीं पता कि वह ऐसा क्‍यों कह रहे हैं ? शायद उन पर ऐसे राजनीतिक दलों का प्रभाव है जो पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक, कई चुनाव हार चुके हैं। मुझे नहीं लगता है कि देश में अराजकता और हिंसा के आधार पर सत्‍ता बदलाव का सपना देखने वालों ने कभी ऐसी परिस्थितियों के बारे में विचार भी किया होगा ?

देश के कुछ लोग, विशेष तौर पर सत्‍ताधारी पार्टी के समर्थक, यह आरोप लगाते रहे हैं कि देश के खिलाफ बड़ी साजिश चल रही है। किसान आन्‍दोलन, शाहीन बाग आन्‍दोलन और दिल्‍ली दंगों को इसका हिस्‍सा बताते हैं। खैर राजनीतिक एवं वैचारिक मतभेद होना लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्‍सा हो सकता है। इसके बावजूद कुछ ऐसे मुद्दे होते हैं जिनको लेकर हर नागरिक, हर राजनीकि दल और हर संस्‍था एक मत होती है। देश की एकता, अखंडता और संप्रभुत्‍ता ऐसे ही अहम तत्‍व है।

भले ही कुछ सत्‍तालोलुप अथवा देश के दुश्‍मनों की प्रत्‍यक्ष अथवा अप्रत्‍यक्ष सहायता करने वाले अपने निजी हितों के लिए भारत में हिंसा और अराजकता के सहारे सत्‍ता परिवर्तन का सपना देख रहे हो, लेकिन यह इतना आसान नहीं है। भारत में लोकतंत्र की गहरी और मजबूत जड़ें तथा विविधता है। हर नागरिक परिस्थितियों को अपने पैमाने पर परखने और समझने की समझ रखता है। यह भारत की सशक्‍त होती नागरिक एवं राजनीतिक संस्‍कृति का प्रमाण है। यदि देश में अलोकतांत्रिक तरीके से सत्‍ता बदलाव का माहौल बनाने के प्रयास हो रहे हो, लेकिन देश के वर्तमान हालातों को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि जनता ऐसे किसी भी बदलाव को किंचित मात्र भी समर्थन देने को तैयार नहीं है।

अलोकतांत्रिक तरीकों से देश में सत्‍ता बदलाव का सपना देखने वालों की भारत के बारे में समझ को लेकर मेरे मन में कई तरह की आशंकाएं हैं। शायद ऐसे लोग भारत की मूल आत्‍मा को समझते ही नहीं है। जब भी देश में हालात बदतर हुए हैं, जनता ने लोकतांत्रिक तरीके से सत्‍ता को बदलने का काम किया है। चाहे इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी को सत्‍ता से हटाकर देश को एक दल की तानाशाही को समाप्‍त करना हो। चाहे मिली जुली सरकारों का अस्तित्‍व में आना रहा हो या फिर गठबंधन की सरकारों का दौर हो। यह सही है कि बहुत अधिक विविधता वाले देश में सभी को संतुष्‍ट करना संभव नहीं है। ऐसे में कुछ लोगों की सरकारों से नाराजगी होना स्‍वभाविक है। इसका तात्‍पर्य यह कतई नहीं है कि अपने ही देश में अराजकता और हिंसा जैसे अलोकतांत्रित तरीकों से चुनी गई सरकार को बदलने का सपना दिन में ही देखना चाहिए।

भारत की तुलना श्रीलंका, बंग्‍लादेश और नेपाल से नहीं की जा सकती है। ऐसा करने वालों की समसामयिकी समझ पर मुझे शंका है। आज के भारत की बात अलग है। वैसे डीप स्‍टेट और विदेशी ताकतें आज के भारत की वैश्चिक आभा को सहन नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में भारत की राजनीतिक व्‍यवस्‍था को अस्थिर करने की साजिशें रचना इनके एजेंडे का हिस्‍सा हो सकता है। भारत में कुछ लोग क्‍या सोचकर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई अपनी ही सरकार को गिराने की चर्चाओं को वैचारिक समर्थन कर रहे हैं ? ऐसे लोगों को अराजकता और हिंसा के सहारे सरकार को गिराने के बाद की परिस्थितियों पर भी विचार करना चाहिए।

यदि कभी ऐसा विचार मन में आए तो श्रीलंका, बंग्‍लादेश और नेपाल की भयावह परिस्थितयों के बीच अपने और अपनों के फंसे होने की कल्‍पना मात्र ही कर लेना चाहिए ? बहरहाल, लगभग डेढ अरब की आबादी वाले देश में सभी को संतुष्‍ट करना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। इसका तात्‍पर्य यह कतई नहीं होना चाहिए कि हम जिस पेड़ की डाल पर बैठे हैं, उसी पर कुल्‍हाड़ी चलाने का विचार करें। वैसे भी विचार तो स्‍वतंत्र होते हैं, विचारों के बारे में क्‍या ही कहा जाए ? हां इतना जरूर है कि ऐसे अलोकतांत्रित विचारों को आज के भारत में अमल में लाने का प्रयास भर के भी क्‍या परिणाम होंगे ? इससे भी सभी लोग भली भांति परिचित हैं।

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