निक्की हत्याकांड ! : घटना से जुड़ी जनभावनाएं, पुलिस की अहम भूमिका और दहेज को समाज परोक्ष सर्मथन
Nikki murder case! : Public sentiments related to the incident, important role of police and society's indirect support to dowry

डॉ देवेन्द्र कुमार शर्मा
Panchayat 24 (ग्रेटर नोएडा) : निक्की हत्याकांड ने पूरे समाज को झकझोर दिया है। यह केवल एक परिवार की बेटी की दर्दनाक मौत नहीं है, बल्कि समाज की उस सोच पर भी सवाल है जिसने बेटियों के जन्म को बोझ बना दिया है। सोशल मीडिया पर वायरल अधिकांश वीडियो ह्रदय विदारक है। यह सबकुछ सभ्य कहे जाने वाले आधुनिक समाज में हुआ है, विश्वास से परे है। वीडियो देखकर स्पष्ट तौर पर प्रथम दृष्टया पता चाल रहा है कि ससुराल पक्ष दोषी है।
जनमानस में आक्रोश है और हर कोई निक्की को न्याय दिलाना चाहता है। कुछ वीडियो ऐसे भी सामने आए हैं जो यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि कहीं जल्दबाजी में लिया गया निर्णय न्याय की दिशा को भटका न दे। इस प्रकारण में भी पुलिस की कार्रवाई को देखकर महसूस हो रहा है कि पुलिस कुछ ऐसा जान रही है जिसका कुछ हिस्सा जनभावना से मेल नहीं खा रहा है। फिर भी जन भावना की अनदेखी पुलिस के लिए भी संभव नहीं है।
बतौर पत्रकार मैंने ऐसी घटनाएं देखी है जब जनभावनाओं के विपरीत पुलिस जाँच में तथ्य सामने आए। ऐसे में पुलिस की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है। न केवल सत्य तक पहुँचने की, बल्कि न्याय प्रक्रिया में जनभावना और तथ्य के बीच आगे बढ़ते हुए सत्य का पता लगाकर विधिसंगत कार्रवाई कर मामले को अंजाम तक पहुंचते हुए पीड़ित को न्याय दिलवाना। जहां तक मैं पुलिस कमिश्ननर लक्ष्मी सिंह को जनता हूं, वह बिना किसी दबाव और प्रभाव के मामले को कानून के दायरे में अंजाम तक जरूर पहुंचाएँगी।
इस घटना का एक सामाजिक पहलू भी है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। दहेज की लालसा ने बेटियों के जन्म को उत्सव से अधिक चिंता का विषय बना दिया है। आज भी एक पिता बेटी के जन्म की खबर सुनकर जितना प्रसन्न होता है, उतना ही बेटी के भविष्य को लेकर चिंतित भी होता है, क्योंकि उसे पता है कि विवाह के समय उसे समाज नामक बाजार में “कीमत” चुकानी पड़ेगी। फिर भी योग्य वर मिल भी सकेगा ?
विडंबना यह है कि वही समाज, जो दहेज की प्रथा को जीते-जागते पोषित करता है, वही समाज निक्की के परिजनों को सांत्वना देने भी पहुँच रहा है। अधिकांश लोग जो संवेदना प्रकट कर रहे हैं, वे स्वयं अपनी संतानों के विवाह में दहेज दे चुके हैं या ले चुके हैं। ऐसे में बड़ा प्रश्न यह है कि क्या ऐसे लोगों को पीड़ित परिवार को सांत्वना देने का नैतिक अधिकार है ? प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, दहेज रुपी दानव को फलने फूलने का अवसर भी ऐसे ही लोगों ने ही दिया है ?
जब ऐसे लोग पीड़ित परिवार से सांत्वना देने के लिए मिलते होंगे, तो क्या उनके मन में यह विचार नहीं आता होगा कि आपने बेटी को कम दहेज दिया ? इस लिए उसकी यह गत हुई है। यदि आपने अतिरिक्त दहेज दे दिया होता तो शायद निक्की जीवित होती ? अर्थात निक्की के ससुराल पक्ष द्वारा की जा रही दहेज की मांग को मौन स्वीकृति !
इस पूरे प्रकरण ने जातिगत और सामाजिक ठेकेदारों की भूमिका की सच्चाई भी उजागर कर दी है। जहां समाज को मुक्त मस्तिष्क से सोचने की ज़रूरत है, वहां जाति की दुहाई देकर निजी स्वार्थ साधे के लिए समाज और जाति के ठेकेदार राजनीतिक सशक्तकारण की बातें करते हैं। जहां सचमुच समाज और जाति की भलाई के लिए आगे आना चाहिए, वहां इनका दूर- दूर तक कोई आता पता नहीं होता।
निक्की हत्याकांड केवल एक आपराधिक मामला नहीं है, बल्कि यह समाज को दोगले चरित्र के लिए आईना भी दिखा रहा है। दहेज जैसी कुप्रथा का विरोध करने की बजाय परिस्थितिजन्य निर्णय लिए जाते हैं। यह प्रवृति दहेज को बढ़ावा देने वाली है। इस विडंबना से बड़ा पाखंड और क्या हो सकता है कि राजनीतिक में जाति को सशक्त बनाने की दुहाई देने वाले जाति और समाज के तथाकथित ठेकेदार दहेज जैसी कुप्रथा के खिलाफ लड़ाई के लिए नैतिक बल जुटा पाने में असफल ही रहे है।
हालांकि एक पिता बेटी के लिए बेटी के लिए वर की तलाश करते समय इस बात का ध्यान रखता है कि ससुराल में बेटी को सारी सुख सुविधा मिले और लड़का भी योग्य हो। इसके बावजूद यदि कहीं समझौता करने कि बात आती है तो ससुराल में मिलने वाली सुख सुविधाओं के बजाय लडके की योग्यता से समझौता कर बैठते है। अर्थात लड़का काम करे अथवा न करें, उसके नाम पर पैतृक सम्पत्ति जरूर होनी चाहिए।
दिल्ली एनसीआर में लड़के के नाम पर कितनी सम्पत्ति है, यह तेजी से लड़की के लिए जीवन साथी तलाशने का आधार बन रहा है। निक्की जैसी बेटियों के साथ घटने बाली घटनाएं ऐसी ही सोच के परिणाम के रूप में समाज के सामने आ रही हैं। आज आवश्यकता है कि दहेज के खिलाफ लड़ाई को केवल अदालत और पुलिस तक न छोड़ें, बल्कि समाज के भीतर व्याप्त दहेज मानसिकता को भी जड़ से समाप्त करने की दिशा में ठोस कदम उठाएं। निक्की की मौत एक चेतावनी है—अगर समाज नहीं बदला, तो न जाने कितनी “निक्की” इसी तरह दहेज की बलि चढ़ती रहेंगी।