स्पेशल स्टोरी

कर्नाटक के बागलकोट में गन्‍ना किसानों ने सौ ट्रेक्‍टर ट्रॉलियों में भरे गन्‍ने की फसल में लगाई आग, राकेश टिकैत और भाकियू मौन क्‍यों ?

In Bagalkot, Karnataka, sugarcane farmers set fire to sugarcane crop loaded in 100 tractor trolleys, why are Rakesh Tikait and BKU silent?

डॉ देवेन्‍द्र कुमार शर्मा

Panchayat 24 : कर्नाटक के बागलकोट में गन्ना किसानों द्वारा किया गया उग्र आंदोलन केवल राज्य सरकार के खिलाफ नाराज़गी भर नहीं है, बल्कि यह देश की कृषि राजनीति के बदलते समीकरणों पर भी गहरा संकेत देता है। गन्ना मूल्य न बढ़ाए जाने से क्षुब्ध किसानों ने कई दिनों तक सड़कों पर धरना दिया और जब कोई समाधान नहीं निकला, तो लगभग 100 ट्रैक्टर-ट्रॉलियों को आग के हवाले कर अपना रोष प्रकट किया। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि यह आग किसानों ने नहीं लगाई है। यह दृश्य जितना विचलित करता है, उतना ही कई सवाल भी खड़ा करता है—खासतौर पर उत्तर भारत के उन किसान संगठनों की भूमिका को लेकर, जो वर्षों से गन्ना किसानों की आवाज़ उठाते रहे हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना बेल्ट—गाजियाबाद से मुजफ्फरनगर और सहारनपुर तक—भारतीय किसान यूनियन और इसके नेता ( पहले स्‍वर्गीय राकेश टिकैत और अब उनके उत्‍तराधिकारी और उनके पुत्र राकेश टिकैत) हमेशा गन्‍ना किसानों की लड़ाई के अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखे हैं। चाहे गन्ने के दाम हों, बकाया भुगतान की लड़ाई हो या फिर तीन कृषि कानूनों का देशव्यापी आंदोलन—टिकैत गुट वाली भारतीय किसान यूनियन हर मोर्चे पर किसानों की लड़ाई लड़ती रही है।

तीन कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब एवं हरियाणा के किसानों के समर्थन में केन्‍द्र सरकार का विरोध करने वाले राकेश टिकैत और भारतीय किसान यूनियन कर्नाटक के किसानों के संकट के बीच चुप है। यह चुप्पी सवालों को जन्म दे रही है। क्या उन्हें दक्षिण भारत के किसानों की पीड़ा अथवा दिखाई नहीं दे रही है ? या फिर राकेश टिकैत और भारतीय किसान यूनियन के लिए किसान आंदोलन की प्राथमिकताएँ अब बदल चुकी हैं ? यदि राकेश टिकैत उत्तर प्रदेश को ही अपना संघर्षक्षेत्र मानते हैं, तो क्या उन्हें यूपी में रहकर कर्नाटक सरकार के खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए थी ? और यदि कृषि आंदोलन राष्ट्रव्यापी होता है, जैसा कि दिल्ली सीमाओं पर हुए प्रदर्शन में दिखाई दिया, तो आज वही नैतिक जिम्मेदारी कर्नाटक के किसानों के संबंध में क्‍यों नहीं दिख रही है ?

पिछले कुछ वर्षों में यह साफ़ दिख रहा है कि किसान नेता राकेश टिकैत और भारतीय किसान यूनियन का केन्‍द्र बदल रहा है। कभी गाजियाबाद से लेकर मुजफ्फरनगर और सहारनपुर वाली गन्‍ना बेल्‍ट में गन्‍ना किसानों की मुखर लड़ाई लड़ने वाले राकेश टिकैत नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना प्राधिकरण के क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण, मुआवजा राशि, किसानों की आबादियों, किसानों के विकसित भूखंड़ और औद्योगिक विकास की परियोजनाओं से जुड़े विवादों में अधिक रूचि दिखा रहे है। जो संगठन कभी गन्‍ना किसानों की लड़ाई को मुखरता से उठाता रहा है, वह आज जमीनी विवादों, टोल प्‍लाजा से जुड़े मामलों और प्रशासनिक दखल जैसे विषयों में अधिक सक्रिय दिखाई देता है।

भारतीय किसान संगठन को लेकर कुछ लोग व्‍यंग करते हुए कहते हैं “जब जीभ छप्‍पन भोग मिठाई का स्वाद चख ले, तो गुड़ अच्छा नहीं लगता।” इस टिप्पणी के मायने गहरे हैं। किसान वर्ग का एक हिस्सा मानता है कि किसान आंदोलन की दिशा और प्राथमिकताएँ अब किसानों की मूल समस्याओं से हटकर निजी, राजनीतिक और औद्योगिक क्षेत्रों में मुड़ गई हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या किसान आंदोलन अब स्थानीय नहीं, अवसरवादी हो गया है? यह प्रश्न कठोर है, लेकिन इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

भारत का किसान आंदोलन हमेशा स्थानीय मुद्दों से शुरू होकर राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनता रहा है। लेकिन अब यह भी दिख रहा है कि आंदोलन वहाँ होता है, जहाँ मीडिया कवरेज अधिक मिलता है। मुद्दे वही उठते हैं, जहाँ राजनीतिक दबाव बनाने की संभावना अधिक हो। और नेतृत्व वहीं सक्रिय दिखता है, जहाँ संगठनात्मक विस्तार का मौका हो। कर्नाटक के गन्ना किसानों की आगजनी कोई छोटी घटना नहीं है। यह किसी भी किसान नेता के लिए एक गंभीर विषय होना चाहिए था। फिर भी, राष्ट्रीय स्‍तर पर किसान संगठनो की चुप्पी समझ से परे है।

किसान आंदोलन की यह बदलती तस्वीर देश के लिए चिंता का विषय है। यदि किसान आंदोलन क्षेत्रीय हो जाएगा, तो राष्ट्रीय नीति प्रभावित होगी। यदि संगठन मुद्दों को चुन-चुन कर उठाएँगे, तो विश्वास कमजोर होगा। और यदि नेतृत्व केवल चुनिंदा संघर्षों में दिखेगा, तो किसान समुदाय में विभाजन और बढ़ेगा। कर्नाटक के किसान इसी विभाजन के बीच संघर्ष कर रहे हैं—उनकी आवाज़ का राष्ट्रीय स्‍तर पर कोई प्रतिनिधि नजर नहीं आ रहा।

कृषि राजनीति सिर्फ गन्ना, गेहूँ, धान या जमीन का प्रश्न नहीं है। यह सवाल है किसान की अस्मिता का—उसकी आर्थिक सुरक्षा, भविष्य और सम्मान का। यदि किसान नेता और संगठन राष्ट्रीय संघर्ष की भावना को छोड़कर केवल सीमित क्षेत्रों या विशिष्ट मुद्दों तक सिमट जाएँगे, तो किसान आंदोलन की ऐतिहासिक विरासत कमजोर होगी। कर्नाटक की आगजनी केवल गन्ने की कीमत का मामला नहीं है। यह उस आग का रूपक है जो किसानों के भीतर बढ़ती निराशा, उपेक्षा और असंतोष को दर्शाती है।

अन्‍त में बड़ा सवाल यही है कि इस आग को बुझाने के लिए राकेश टिकैत और भारतीय किसान यूनियन सहित राष्ट्रीय स्‍तर पर सक्रिय किसान संगठन आगे क्‍यों नहीं आ रहे हैं ? या यह संघर्ष भी केवल एक राज्य की “स्थानीय समस्या” बनकर रह जाएगा ? यदि ऐसा है तो किसान संगठनों पर लगने वाला यह आरोप सही साबित होगा कि उनकी सक्रियता केवल राजनीतिक दल विशेष की सरकारों के खिलाफ ही दिखाई देती है ?

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