स्पेशल स्टोरी

बिसाहड़ा टू संभल : राजनीति में लूट मची है, लूट सके तो लूट, फिर पीछे पछताओगे, जब मौका जाएगा छूट

Bisahada to Sambhal: There is loot in politics, loot if you can, then you will regret later, when the opportunity is gone

डॉ देवेन्‍द्र कुमार शर्मा

Panchayat 24 : देश के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी को उत्‍तर प्रदेश पुलिस ने संभल जाने से रोक दिया। उन्‍हें गाजीपुर बार्डर से ही वापस दिल्‍ली लौटना पड़ा। इससे पूर्व उत्‍तर प्रदेश सरकार ने एआईएमआईएम और समाजवादी पार्टी तथा कांग्रेस के अन्‍य नेताओं को काफी प्रयासों के बावजूद संभल में प्रवेश नहीं करने दिया। दरअसल संभल में घटी घटना के बाद जिस तरह से राजनीतिक आकर्षण पैदा हुआ है उसने मेरे पत्रकारिता जीवन की एक घटना की यादों को ताजा कर दिया है। इस घटना का स्‍थल जरूर अलग है लेकिन राजनीतिक कलाकार लगभग वहीं हैं जो संभल में हैं। हां कुछ राजनीतिक कलाकारों की भूमिका जरूर बदल गई है।

यह घटना 28 सितंबर 2015 को दादरी के बिसाहड़ा के बहुचर्चित अकलाख हत्‍याकांड़ से जुड़ी है। मामले में पुलिस और प्रशासन अपने तरीके से कानूनी कार्रवाई कर रहे थे। अचानक बिसाहड़ा राजनीतिक दलों के लिए आकर्षण का केन्‍द्र बन गया। असदुद्दीन ओवेसी से लेकर अरविन्‍द केजरीवाल और कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता राहुल गांधी सहित लगभग हर भाजपा और तत्‍कालीन केन्‍द्र सरकार विरोधी दल  पुलिस और प्रशासन के विरोध के बावजूद बिसाहड़ा पहुंचे। हालांकि बसपा की ओर से पीडित परिवार को नकद सहायता राशि दी गई। वहीं, समाजवादी पार्टी की ओर से पीडित परिवार की ओर से न केवल मृतक के परिवार की बल्कि उसके भाईयों को भी आर्थिक एवं मकान देकर मदद की गई। सरकार की ओर से की गई यह मदद काफी चर्चा में रही। लोगों ने इस सहायता को मानवीय कम, राजनीतिक अधिक माना।

संभल की यह घटना कई मायनों में बिसाहड़ा की घटना से समानता रख रही है। दरअसल साल 2014 में भाजपा ने सभी विरोधी दलों को चारो खाने चित करते हुए अकेले अपने दम पर नरेन्‍द्र मोदी के नेतृत्‍व में केन्‍द्र की सत्‍ता पर कब्‍जा कर लिया। विपक्षी दलों ने बिसाहड़ा कांड के पीछे अपनी हार की हताशा को छिपाकर छिपाने का प्रयास किया। वहीं, साल 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में नरेन्‍द्र मोदी के नेतृत्‍व में भाजपा सहयोगी दलों के साथ मिलकर लगातार तीसरी बार केन्‍द्र में सरकार बनाने में सफल रही। विपक्षी दल संभल घटना के पीछे अपनी हार को छिपाने का प्रयास कर रहे हैं। जिस तरह से बिसाहड़ा घटना की आड़ में विरोधी दलों ने भाजपा को साम्‍प्रदायिक पार्टी साबित करने का प्रयास किया, कुछ उसी तरह संभल को भाजपा विरोध की प्रयोगशाला बनाने का प्रयोग जारी है।

बिसाहड़ा और संभल की घटनाओं में राज्‍य सरकारों के नेतृत्‍व की मंशा भी स्‍पष्‍ट दिखाई देती है। 2015 में तत्‍कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार ने बिसाहड़ा में भाजपा विरोधी अन्‍य दलों के साथ मिलकर जमकर राजनीतिकरण किया। पुलिस और प्रशासन पर मामले में जल्‍द से जल्‍द कार्रवाई करने का अनावश्‍यक दबाव बन गया। परिणामस्‍वरूप कई निर्दोष लोगों के खिलाफ कार्रवाई की गाज गिरी। वहीं, संभल में राज्‍य सरकार कानूनी कार्रवाई पर ध्‍यान केन्द्रित किए हुए हैं। कानून व्‍यवस्‍था पर किसी भी तरह के अनावश्‍यक दबाव को दूर रखने के लिए किसी भी राजनीतिक व्‍यक्ति को संभल में प्रवेश से रोका जा रहा है।

साल 2015 में हुए बिसाहड़ा कांड और 2024 में हुई संभल कांड में भले ही काफी समानताएं हो, लेकिन एक असमानता दोनों घटनाओं को लेकर राजनीतिक करने वालों पर बड़ा सवाल भी उठाती है। दरअसल, कानून व्‍यवस्‍था राज्‍य सूची का विषय है। अर्थात पुलिस राज्‍य सरकारों के अन्‍तर्गत आती है और  सुरक्षा व्‍यवस्‍था बनाकर रखना राज्‍य सरकारों का काम है। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि 2015 के बिसाहड़ा कांड़ के लिए क्‍यों अखिलेाश यादव की सरकार जिम्‍मेवार नहीं थी ? जिन राजनीतिक दलों की नजरों में बिसाहड़ा कांड के लिए तत्‍कालीन अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी जिम्‍मेवार नहीं थी तो संभल की घटना के लिए योगी आदित्‍यनाथ की सरकार कैसे जिम्‍मेवार हो गई ? यदि संभल को लेकर योगी आदित्‍यनाथ की सरकार दोषी है तो फिर बिसाहड़ा कांड़ के लिए अखिलेया यादव की सरकार को क्‍लीनचिट किस आधार पर दी गई ? निष्‍कर्षत: दोनों घटनाओं को राजनीतिक दल अपने राजनीतिक स्‍वार्थ के लिए अपने नजरिये से परिभाषित कर रहे हैं। राजनीतिक स्‍वार्थों को पूरा करने के लिए अंधी दौड़ी मची हुई है। कोई भी दल किसी से पीछे रहना नहीं चाहता है। सही और गलत के मायने भी राजनीतिक हो चुके हैं। राजनीतिक स्‍वार्थ के आगे राष्‍ट्रहित गौण दिखाई दे रहा है।

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