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बिहार विधानसभा जनादेश 2025 : बदलती राजनीति और मतदाता की नई प्राथमिकताओं का संकेत

Bihar Assembly Mandate 2025: A Sign of Changing Politics and New Voter Priorities

 डॉ. देवेंद्र कुमार शर्मा

Panchayat 24 : बिहार में एनडीए की प्रचंड जीत और महागठबंधन की पूरी तरह हुई पराजय केवल चुनावी नतीजा नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति की दिशा बदलने वाला संकेत है। लोकसभा चुनाव में अपने बूते बहुमत न ला पाने के बाद भी भाजपा ने हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों में जो बढ़त हासिल की थी, उसने साफ कर दिया था कि जनता के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अप्रभावित है। इसके बावजूद बिहार चुनाव भाजपा, एनडीए, मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार — सभी के लिए एक कठिन और निर्णायक परीक्षा था। विपक्षी दलों ने पूरे सामर्थ्य के साथ भाजपा के विजय अभियान को रोकने की कोशिश की, किंतु मतदाताओं ने एक बार फिर एनडीए को ही भारी बहुमत के साथ चुना।

चुनाव परिणामों ने स्पष्ट रूप से दिखाया है कि अस्थायी जातीय समीकरणों का राजनीतिक जादू अब फीका पड़ चुका है। मुस्लिम मतों के एकतरफा ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया में हिंदू मतदाताओं का एकजुट मतदान देखने को मिला। धार्मिक आस्थाओं से जुड़े विवाद—जैसे नवरात्रों में तेजस्वी यादव का मछली खाने वाला वीडियो या छठ पर राहुल गांधी की अप्रिय टिप्पणी—ने बहुसंख्यक समुदाय में असहमति और नाराजगी पैदा की। बहुसंख्यक आबादी की भावनाओं की अनदेखी कर चुनाव जीतने का समीकरण बिहार में गलत साबित हुआ।

पहलगाम आतंकी हमले पर केंद्र सरकार की तत्पर प्रतिक्रिया और दूसरे चरण से ठीक पहले हुए लालकिला विस्फोट ने राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनाव का निर्णायक मुद्दा बना दिया। मोदी सरकार के कदमों को मजबूत नेतृत्व के रूप में देखा गया, जिससे मतदाताओं में एनडीए के प्रति विश्वास और बढ़ा। यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि बिहार का मतदाता अब केवल स्थानीय मुद्दों तक सीमित नहीं; राष्ट्रीय सुरक्षा और नेतृत्व की स्थिरता भी उसकी प्राथमिकताओं में शामिल है।

लालू यादव के शासनकाल की प्रतीक बन चुकी ‘जंगलराज’ की स्मृतियाँ आज भी बिहार के वोटर मानस पर गहरा असर रखती हैं। नीतीश कुमार का शासन भले ही विकास के राष्ट्रीय पैमानों पर अपेक्षित गति नहीं पकड़ पाया, लेकिन मतदाताओं ने उसे लालू शासनकाल से बेहतर माना। लालू परिवार की आंतरिक कलह—विशेषकर तेजप्रताप यादव के लगातार तेजस्‍वी यादव और राहुल गांधी पर आक्रामक बयानों—ने महागठबंधन को नुकसान पहुँचाया। तेजप्रताप और उनकी पार्टी भले चुनाव न जीत सकी, पर राजद की हार के सामाजिक-राजनीतिक वातावरण को अवश्य तेज किया। इसके विपरीत, एनडीए महिलाओं और लाभार्थी वर्ग को साधने में अधिक सफल हुआ।

एनडीए के पास मोदी और नीतीश जैसे सशक्त और अनुभवी चेहरे थे, जबकि महागठबंधन स्पष्ट नेतृत्वहीनता से जूझता रहा। तेजस्वी यादव को राजद की ओर से एकमात्र प्रमुख चेहरा बनाकर प्रस्तुत किया गया, लेकिन उनका राजनीतिक अनुभव और विश्वसनीयता अभी भी मतदाताओं को पूरी तरह आश्वस्त नहीं कर पाई। कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी की सीमित और अनियमित उपस्थिति, पोस्टरों से उनका गायब चेहरा और सीट-बंटवारे में कांग्रेस–राजद की सीधी प्रतिस्पर्धा—इन सबने महागठबंधन के भीतर असंगति का स्पष्ट संकेत दिया। ऐसे समय में जब चुनावी राजनीति में नेतृत्व की एकरूपता निर्णायक हो, महागठबंधन की ढीली संरचना उसके पतन का प्रमुख कारण बनी।

महिलाओं के खातों में चुनाव से ठीक पहले दस हजार रूपये की धनराशि भेजना और मुफ्त राशन जैसी योजनाओं ने एनडीए के पक्ष में चुनावी माहौल बनाया। वहीं, राज्य में विशेष भर्ती प्रक्रियाएँ और हर घर नौकरी जैसे महागठबंधन के वादे मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सके। मतदाता अब अल्पकालिक लाभों से आगे बढ़कर योजनाओं की व्यावहारिकता को समझने लगा है। चुनाव प्रचार का बड़ा हिस्सा “वोट चोरी” जैसे अव्‍यवाहारिक विवादों में उलझा रहा, जबकि जमीनी मुद्दों पर गंभीरता की कमी विपक्ष के प्रति अविश्वास को बढ़ाती रही।

प्रशांत किशोर और जनसुराज पार्टी ने बिहार में नई राजनीति का दावा किया था, किंतु जनता ने बड़े राजनीतिक प्रयोगों से दूरी बनाए रखी। दिल्ली मॉडल से जुड़े नकारात्मक अनुभवों और आम आदमी पार्टी के प्रति अविश्वास ने भी इस प्रयोग को कमजोर किया। इसके विपरीत, एआईएमआईएम ने सीमांचल में पाँच सीटें जीतकर यह संकेत दिया कि   बिहार में आने वाले चुनावों में औवेसी को अनदेखा करना किसी भी गैर-भाजपाई गठबंधन के लिए भारी पड़ सकता है।

बिहार का यह जनादेश न केवल स्थानीय राजनीति का पुनर्संयोजन है, बल्कि उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्यों में आने वाले चुनावों पर भी सीधा असर डालने वाला है। समाजवादी पार्टी का जातीय पीडीए फॉर्मूला और ममता बनर्जी की रणनीतियाँ इस परिणाम से स्वाभाविक रूप से दबाव में आ गई हैं। कुल मिलाकर, बिहार चुनाव ने यह साबित कर दिया है कि भारतीय मतदाता अब जातीय समीकरणों, अस्थिर गठबंधनों और खोखले वादों से आगे बढ़ चुका है। उसका निर्णय अब नेतृत्व की स्थिरता, सुरक्षा, सांस्कृतिक संवेदनशीलता और दीर्घकालिक नीतिगत विश्वसनीयता पर आधारित है।

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