ऐसे तो कहानियों का हिस्सा बनकर रह जाएगी कांग्रेस : सबसे बुरे दौर से गुजर रही है देश की सबसे पुरानी पार्टी, एक और बड़े नेता ने कांग्रेस से तोड़ा 55 साल पुराना नाता,
In this way, Congress will remain a part of the stories: The oldest party of the country is going through its worst phase, another big leader broke his 55 year old relationship with Congress,

Panchayat 24 : देश की आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वाली सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी आज अपने वजूद को बचाने का संघर्ष कर रही है। वर्तमान में पार्टी का संगठन विस्तार में ठहराव देखा जा रहा है। वहीं, बड़े चेहरे कांग्रेस का साथ छोड़ रहे हैं। इस कड़ी में एक नया नाम मिलिंद देवड़ा का भी जुड़ गया है। मिलिंद देवडा का नाम कांग्रेस के बड़े नेताओं के शुमार होता है। उनके परिवार का कांग्रेस से 55 साल पुराना नाता है। उन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट करके कांग्रेस छोड़ने की जानकारी दी। जानकारों की माने तो कांग्रेस छोड़कर दूसरे दलों में संभावनाएं तलाशने वाले नेताओं की तरह मिलिंद देवड़ा भी इसी राह पर चल रहे हैं। माना जा रहा है कि वह लोकसभा चुनाव से पूर्व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना का हिस्सा बन सकते हैं। वह शिवसेना के टिकट पर मुम्बई से चुनाव लड़ सकते हैं। यदि कांग्रेस का यही हाल रहा तो देश की सबसे पुरानी पार्टी कहानी किस्सों का हिस्सा ही बनकर रह जाएगी। कांग्रेस की यह दशा भारतीय लोकतंत्र के लिए भी शुभ नहीं है।
कौन है मिलिंद देवड़ा ?
मिलिंद देवड़ा कांग्रेस के भूतपूर्व वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली देवड़ा के बेटे हैं। उनकी गिनती कांग्रेस के तेज तर्रार युवा नेताओं में होती है। मिलिंद देवड़ा साल 2004 और 2009 में मुम्बई दक्षिण सीट से सांसद रह चुके हैं। साल 2014 और 2019 में चुनाव हार गए थे। वह यूपीए की सरकार में केंद्रीय नौका परिवहन राज्यमंत्री भी रह चुके हैं। इसके अतिरिक्त वह सांसद रहने के दौरान रक्षा मंत्रालय की समिति, केंद्रीय शहरी विकास समिति के सदस्य भी रह चुके हैं।
कांग्रेस का साथ छोड़ने वाले बड़े चेहरे
साल 2014 में केन्द्र की सत्ता से कांग्रेस बाहर हुई थी। इसके बाद से ही लगातार कांग्रेस के नेता कांग्रेस की नीतियों पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस का साथ छोड़ रहे हैं। कांग्रेस छोड़ने वाले बड़े चहरों में गुलाम नबी आजाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद, सुष्मिता देव सेन, कपिल सिब्बल, हार्दिक पटेल, सुनील जाखड़, अश्वनी कुमार, आरपीएन सिंह, जयवीर शेरगिल, हेमंत बिस्व सरमा और कुलदीप बिश्नोई जैसे नामों की एक लंबी सूची है। इन सभी ने प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से राहुल गांधी और पार्टी नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करते हुए गंभीर आरोप लगाए हैं।
सत्ता से बाहर रहते हुए टूटती रही है कांग्रेस
कांग्रेस भारत की सबसे पुरानी पार्टी है। इसकी स्थापना आजादी से पूर्व एक अंग्रेजी अधिकारी एलेन ओक्टेवियन ह्यूम ने साल 1885 में 28 दिसंबर को मुम्बई (तत्कालीन बाम्बे) में हुई थी। इसके संस्थापक सदस्यों में एलेन ओक्टेविन ह्युम के साथ उस समय के बड़े नेता और विचारक दादा भाई नौरोजी, दिनशा वाचा आदि शामिल थे। व्योमेश चंन्द्र बनर्जी को कांग्रेस का पहला अध्यक्ष बनाया गया था। हालांकि वैचारिक तौर पर कांग्रेस में मतभेद शुरूआती दौर से ही उभरने लगे थे। साल 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में मतभेदों के चलते कांग्रेस दो गुटों में बट गई। दादाभाई नौरोजी,उमेशचंद्र बनर्जी, फीरोजशाह मेहता आदि नेताओं के नाम नरमदल के नेताओं में गिने जाते थे। वहीं गरम दल के नेताओं में लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल और बाल गंगाधर तिलक आदि के नाम शामिल थे। हालांकि साल 1916 में एनीबेसेंट के नेतृत्व में आयोजित हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में कांग्रेस के दोनों गुट एक हो गए।
– मोती लाल नेहरू चितरंजन दास के साथ सबसे पहले कांग्रेस से साल 1923 में अलग हुए और स्वराज पार्टी बनाई।
– सुभाष चन्द्र बोस ने 1939 में कांग्रेस छोड़कर अशिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया।
– आजादी के बाद जे कृपलानी ने साल 1951 में कांग्रेस का दामन छोड़कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी का गठन किया।
– एनजी रंगा ने हैदाराबाद में साल 1951 में ही हैदराबाद स्टेट प्रजा पार्टी बनाई।
– सी राजगोपालाचारी ने 1956 में कांग्रेस से अलग होकर नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी बनाई।
– बिहार, राजस्थान, गुजरात और उड़ीसा में साल 1959 में भी कांग्रेस टूट गई।
– केरल में केएम जॉर्ज ने कांग्रेस तोड़कर केरल कांग्रेस पार्टी का गठन किया।
– चौधरी चरण सिंह ने 1967 में कांग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल का गठन किया। वर्तमान में इसका नाम बदलकर लोकदल कर दिया गया।
– पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने साल 1969 में कांग्रेस से बर्खास्त कर दी गई जिसके बाद उन्होंने कांग्रगेस (आर) पार्टी का गठन किया। बाद में इस पार्टी को कांग्रेस (आई) के नाम से जाना गया। वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम से इस पार्टी को जाना जाता है।
– पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 1984 में इंदिरा की हत्या किए जाने के बाद जन मोर्चा पार्टी बनाई। बाद में कांग्रेस का यह धड़ा जनता दल, जनता दल (यू) और समाजवादी पार्टी में बंट गया।
– साल 1999 में कांग्रेस में एक बार फिर बगावत हुई। इस बार शरदप पवार ने राष्ट्रवादी पार्टी, ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। वहीं, इसी समय कांग्रेस से वाईएसआर कांग्रेस, पीडीपी, जनता कांग्रेस और बीजू जनता दल भी कांग्रेस को तोड़कर बनी।
– पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी कांग्रेस का दामन छोड़कर पंजाब लोक कांग्रेस का गठन यिका। बाद में अमरिंदर सिंह की पार्टी का भाजपा में विलय हो गया।
– कांग्रेस के बड़े नेता गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस छोड़कर डेमोक्रेटिक प्रगतिशील आजाद पार्टी का गठन किया।
कांग्रेस में नेतृत्व क्षमता का अभाव
वर्तमान में कांग्रेस में नेतृत्व क्षमता का अभाव दिख रहा है। कांग्रेस समय के साथ भारतीय राजनीति में आए बदलावों को नहीं समझ पा रही है। कांग्रेस के नेता अपनी नीतियों के अपेक्षा गांधी परिवार के नाम पर वोट हासिल करने में आधिक विश्वास प्रकट कर रहे हैं। लेकिन वर्तमान में गांधी परिवार में पार्टी को नेतृत्व प्रदान करने और पार्टी को आगे बढ़ाने की क्षमता का अभाव दिख रहा है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि पार्टी के अनुभवी और उम्रदराज नेताओं की अनदेखी हो रही हे। कांग्रेस पार्टी में चली आ रही गांधी परिवारिक विरातस को आगे बढ़ाने के लिए सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी केन्द्र में आ गए हैं। हर बार असफल होने के बावजूद राहुल गांधी को बार बार पार्टी आगे बढ़ा रही है। इसका पार्टी के नेताओं ने विरोध भी किया है जिसके कारण पार्टी में इन्हें अलग थलग कर दिया गया है। प्रतीत हो रहा है कि पार्टी में गांधी परिवार के इर्दगिर्द बने रहने वाले कार्यकर्ताओं के विचारों को तवज्जो दी जा रही है। परिणामस्वरूप पार्टी का प्रदर्शन चुनाव दर चुनाव बद से बदतर होता जा रहा है।
देश की राजनीति में दोराहे पर खड़ी है कांग्रेस
वर्तमान परिस्थितियों में कांग्रेस राजनीति के उस दोराहे पर खड़ी है जहां पार्टी को किस दिशा में ले जाना है, इस बारे में पार्टी का शीर्ष नेतृत्व निर्णय नहीं ले पा रहा है। देश में विपक्ष की भूमिका में खड़ी कांग्रेस सत्ता पक्ष के खिलाफ मुद्दों का सही से चयन कर पा रही है। यदि मुद्दा मिल भी रहा है तो कारगर तरीके से सत्ता पक्ष के विरूद्ध इसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। वर्तमान में कांग्रेस नेतृत्व में वह दमखम नहीं दिख रहा है कि वह मजबूत विपक्ष की भूमिका भी निभा सके।
वामपंथ की ओर कांग्रेस का झुकाव
देश की आजादी के बाद से ही कांग्रेस एक ऐसी पार्टी रही है जिसमें समाज के सभी वर्गों का नेतृत्व रहा है। वर्तमान में कांग्रेस जिस प्रकार से हिन्दु विरोधी नीतियों पर चल रही है उससे प्रतीत हो रहा है कि कांग्रेस का झुकाव वामपंथ की ओर बढ़ रहा है। देश में अप्रसांगिक हो चुकी वामपंथी विचारधारा वाली पार्टियां इस समय कांग्रेस के कंधों से बंदूक चला रही है। कई मौको पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की वामपंथी नेताओं के साथ वैचारिक करीबी देखी जाती है। भले ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी चुनाव के समय मंदिर मंदिर घूमका गले में जनेऊ धारण कर खुद का धर्म, जाति और गौत्र बताते हो, लेकिन समय समय पर पार्टी की हिन्दु विरोधी बयानबाजी और नीतियां सामने आती रही है। इससे देश का बहुसंख्यक वर्ग कांग्रेस पार्टी से खासा नाराज है। अधिकांश चुनावों में पार्टी की हार के लिए अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और बहुसंख्यकों की अनदेखी हार का कारण बनती रही है। मुख्यत: उत्तर भारत के राज्यों में। कांग्रेस के कई नेता यह कह चुके हैं कि हिन्दु विरोधी नीतियों के कारण कांग्रेस की यह दुगर्ति हो रही है।
कांग्रेस का अतीत पार्टी के सामने बड़ी समस्या
कांग्रेस पार्टी ने देश में सबसे अधिक सत्ता में बनी रही है। इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस के शासन काल में देश में काफी विकास किया है। आजादी के समय की परिस्थितियों में देश को लेकर आगे बढ़ना आसान नहीं था। लेकिन कांग्रेस ने अच्छे से इस काम को किया। लेकिन कुछ ऐसी नीतिगत गलतियां रही है जिनको लेकर कांग्रेस का अतीत वर्तमान में पार्टी के सामने मुश्किलें खड़ी करता रहा है। इनमें कश्मीर समस्या, अक्साई चिन का मामला, शाहबानों प्रकरण, और भ्रष्टाचार जैसे विषय शामिल है। विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस यदि सत्ता पक्ष को किसी मामले पर घेरती है तो उसी मामले में सत्ता पक्ष कांग्रेस को अतीत का आईना दिखाकर शांत कर देता है।
राम मंदिर मामले में कांग्रेस का स्टेण्ड समझ से परे
राम मंदिर का मामला भारत की राजनीति के मूल में रहा है। साल 1989 से लेकर वर्तमान तक देश की राजनीति इसी मुद्दे के इर्दगिर्द घूमती रही है। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में कांग्रेस ने राम मंदिर का विरोध ही किया है। दक्षिणपंथी दल राम मंदिर मुद्दे पर आगे बढ़ती रही है। सुप्रीम में राम मंदिर प्रकरण को लेकर कांग्रेस राम मंदिर के विरोध में ही दिखी। प्रभु श्रीराम को लेकर एक के बाद एक अतार्किक बयानबाजी की। वहीं, भाजपा ने प्रमुखता से इस मुद्दे को उठाया। राममंदिर के सहारे कांग्रेस पर बहुसंख्यक हिन्दु विरोधी होने के आरोप लगाए। राम मंदिर को आगे बढ़ाकर भाजपा ने जातियों में बिखरे हिन्दु समाज को एक करके केन्द्र की सत्ता को हासिल कर लिया। हिन्दु समाज का एकजुट होना देश की राजनीति को एक नई दिशा देने लगा। इसका असर कांग्रेस सहित सभी गैर भाजपाई दलों पर दिखने लगा।
राम मंदिर का निमंत्रण पत्र ठुकराकर पार्टी लोकसभा चुनाव में जाने से पूर्व ही अपना बड़ा नकसान कर चुकी है
वर्तमान में राम मंदिर बनकर तैयार हो गया है। सभी राजनीतिक दलों को 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के लिए मंदिर प्रशासन की ओर से निमंत्रण दिए जा रहे हैं। कांग्रेस ने निमंत्रण पत्र को ठुकरा दिया है।कांग्रेस के इस निर्णय को लेकर पार्टी के अंदर ही मतभेद उभरकर सामने आ गए हैं। पार्टी कार्यकर्ता कांग्रेस पर हिन्दु विरोधी होने का आरोप लगाकर शीर्ष नेतृत्व के फैसले का विरोध कर रहे हैं। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि राम मंदिर के निमंत्रण पत्र को ठुकराकर कांग्रेस ने बिना लडे ही लोकसभा चुनाव में अपना बड़ा नुकसान कर लिया है।
निमंत्रण पत्र ठुकराने का असर आईएनडीआई गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका पर भी पड़ेगा
जानकारों का मानना है कि अयोध्या में बन रहे राम मंदिर को लेकर उन दलों की भी भाषा बदल गई है जो कभी राम मंदिर निर्माण के घोर विरोधी थे। समाजवादी पार्टी जैसे दल भी अयोध्या जाकर प्रभु श्रीराम के दर्शन करने की बात कह रहे हैं। कई दलों के नेता रामलला प्राण प्रतिष्ठान कार्याक्रम के निमंत्रण पत्र का इंतजार कर रहे हैं। कांग्रेस के भी कई नेता रामलला प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में जाने की बात कह चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व द्वारा कार्यक्रम का निमंत्रण पत्र ठुकराए जाने के बाद गठबंधन के शामिल दल कांग्रेस से गठबंधन को लेकर होने वाली लाभ हानि पर विचार कर रहे हैं। राजनीतिक जानकारों की माने तो कुछ दल कांग्रेस से गठबंधन नहीं करने को प्राथमिकता दे रहे हैं। यदि गठबंधन होता है तो कांग्रेस को अपनी शर्तों पर सीटें देना चाहते हैं। इनका मानना है कि कांग्रेस से गठबंधन करके कांग्रेस के प्रति बहुसंख्यक वर्ग की नाराजगी का सामना उन्हें भी करना पड़ सकता है।